Mar 10, 2015

प्रश्नचिन्ह ....

पार्क के उस कोने में जहाँ झुरमुट को ढालते जंगली पौधों के कई झाड उगे थे,  उसी के पीछे एक बडे से पेड़ पर ओट लगाये कई सपने देखे थे हमने. बड़ा सा वो पेड़ अपनी बड़ी बड़ी भुजावों को पत्तों से ढापे पार्क के बड़े से उस हिस्से को छाया से भर देता था. बड़े से तने पर पीठ टिकाये हम दोनों ने न जाने कितने सपने बनाये थे, कितने बिखेरे थे, न जाने कितने लम्हों को संग संजोये थे. मैदान पर पड़े सूखे कई पत्तों ने हमारे बनते बिखरते जीते पलों को गवाही दी थी. उन्ही पलों में कई पत्ते और टहनियों ने हमारी सपने संजोये थे. घर ?”. हाँ घर के दो अक्षरों के बाद एक बड़ा सा प्रश्न चिन्ह उभर आया था उनके चेहरे पर. कई प्रश्न चिन्ह हमारे जहाँ में भी उभरे थे, जिनका फिसल कर लबों पर आना उनके माथे पर शिकन की लकीर दे जाती. भांप लिया था हमने, मुस्कुराते हुए प्रश्नचिन्ह को दो उँगलियों से उठाया और पॉकेट में डाल लिया.   बिन कुछ कहे पास पड़े कोमल से टहनियों को उठाया और चार खम्भों सा खड़ा कर कहा...चलो बनाते हैं न, एक घर”. लकीरों से टहनियों का घर बनता गया. कुछ पत्तों पर खिड़कियाँ बनी, कुछ पर दरवाज़े. हम दोनों ने एक घरोंदा बना लिया था. प्रश्नचिन्ह के टेढ़े कमर को खीच सीधा कर, एक विजय स्तम्भ घर के सीरे पर लगा गए थे. उम्र से कई वर्ष पूर्व हमने ऐसा खेल खेला था. उम्र के दहलीज़ पर इन्हें दोहराना कहीं न कहीं गूढ़ उद्देश्य दे रहा था, एक आस दिखा रहा था.  बिन एक शब्द के कई पल बुनते गए और एक घरोंदा बना. सपना था वो या एक आस थी या दोनों ही एक दुसरे में समेटे थी.


एक आंधी आई, लकीरों को उखाड़ गयी, पत्तों के दरवाज़ों से घुस कर हर दीवार तोड़ गयी. बिखरे उन लम्हों में आँखों से टपक एक बूंद चमक उठी थी शायद. नन्ही सी उनकी आंसू के बूंद गहरी थी. चेहरे की मुस्कान को सजाने का प्रयास व्यर्थ हो रहा था. बुझे मन से कुछ कदम चलने की इच्छा को आंसू के बूंदों ने कहीं बोझिल बना दिया था तभी दोनों कदम बारबार नहीं पड़ रहे थे. एक स्पर्श सिमटती हुई कुछ लकीरें मेरे लकीरों से आ मिली. आवाज़ आई “लडें?”  दो अक्षरों से सटी प्रश्नचिन्हों ने कई बार हमे जगाया था. चौंका, तो देखा साथ वो थी. अनबुझे से जान में एक उन्माद हुआ, फिर मैं लड़ने को तत्पर हुआ. घरोंदा को घर और घर में परिवार, परिवार में खेलते बच्चे की चाह प्रबल होती गयी. एक एक कर आंधी के एक छोर को पकड़ता गया. विरोध में उठे हुए परिवार के सभी सदस्यों को अपने निर्णय का सार समझाता गया. और एक एक कर सभी छोर को बांधता गया. सूत्र में बंधे, घरोंदा से घोसला और घोसला से घर बना. आज बच्चों की किलकारी बीच प्रश्न फिर वही है “खुश?”

आज जब देखता हूँ मुड़ कर, दो अक्षर उभरे थे हर कदम पर. हर प्रश्नचिन्ह पर ठहरे थे हम. कहते हैं की थक जाओ जब तो कुछ पल ठहर जाओ. अपने पास की शक्ति को समेटो. उद्देश्य को फिर समेटो  फिर निकल पड़ो....यही तो है सार....ज़िन्दगी की सार...    


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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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